पिछले कई वर्षों से
हम गांधी जयंती के नाम पर आज की इस छुट्टी का मज़ा लेते आये हैं, परन्तु हम में से ज़्यादातर लोगो
के मन में बापू के प्रति कुछ ख़ास श्रद्धा नहीं है, ना ही आज़ादी की लड़ाई की सही
कीमत हम समझते हैं. मैं भी इससे भिन्न नही. मैंने भी आजतक ऐसा कुछ नहीं लिखा है जैसा कि आज लिख रहा हूँ. इस बार विशेष यह
भी है कि देश के नवनिर्वाचित प्रधानमन्त्री, श्री नरेंद्र मोदी जी ने स्वच्छ भारत अभियान
का आह्वाहन किया है. दो दिन पहले टीवी पर प्रधान मंत्री जी को न्यूयार्क के मेडिसन
स्वायर में प्रवासी भारतियों को सम्बोधित करते हुए सुना। उनके पूरे सम्बोधन के दौरान मन बहुत प्रसन्न था परन्तु एक
बात दिल को लग गयी. ये सोच कर बड़ी लज्जा का अनुभव हुआ की देश के प्रधानमन्त्री को विदेश
जाकर देश के लोगों को इस बात के लिए जगाना पड़ा कि " भाई अपने घर की, अपनी गली
की, अपने शहर की, अपने देश की सफाई कर लो, और साफ़ रखो. " यानी हम सभ्य समाजी इतना
भी सलीका नहीं रखते की साफ़ रह सकें और साफ़ रख सकें. शायद नहीं, इसीलिए तो हमें ये दिन
देखना पड़ रहा है. इतना ही नहीं आज के दिन उनको खुद झाड़ू लगाकर दिखाना पड़ रहा है , इस उम्मीद में क़ि शायद हम पढ़े
लिखे सभ्य लोग थोड़ा शर्मिंदा महसूस करें और सफाई से रहने की आदत डालें.
स्वच्छ भारत अभियान
में सरकारी दफ्तरों
और कार्यालयों को
विशेष रूप से
शामिल किया गया
है. परन्तु जिस
तरह से इस
अभियान को चलाया
जा रहा है
मुझे हिंदी दिवस
का स्मरण हो
आता है. हो
यह रहा है
क़ि सरकारी अधिकारी
या नेताजी पहले
सुसज्जित रूप से
कूड़ा रखवा रहे
हैं फिर हाथ
में बड़ा सा
झाड़ू लिए उसे
साफ़ करने का
पोज़ कर रहे
हैं. इसी प्रकार
हो जायेगा एक
सफल " स्वच्छ भारत अभियान".
खुद एक सार्वजनिक
क्षेत्र का कर्मचारी
होने के नाते
इस बात से
मैं भली भाँती
परिचित हूँ कि
हर दफ्तर, कार्यालय में सफाई
के लिए अलग
से कर्मचारी पहले से ही
तैनात होता है.
और अधिकतर सफाई
कर्मचारी अपना काम
करते भी हैं. समस्या यह है
कि साफ़ तो
कर दिया गया
पर क्या हम
साफ़ रखते हैं?
कहीं पान की
पीक, कहीं मूंगफली
के छिलके और
इस प्रकार के
अन्य उत्पादों से
हम अपने दफ्तर
की सज्जा करना
नहीं भूलते. ये
तो रही ऑफिस
की बात जिसकी
सज्जा में हम
शायद इतने कुशल
ना हों पर
अपनी गलियों, रास्तों
और सड़कों पर
तो हम सबसे
ज़्यादा मेहरबान रहते हैं.
कुछ भी फेंकना
हो, छिलके, कागज़,
प्लास्टिक या फिर
थूकना हो, हम
लोग इतना हक़
से ये सब
करते हैं जैसे
ये सब साफ़
करने के लिए
हमने अपने वेतन
पर कोई निजी
कर्मचारी रखा हो,
जो हमारे पीछे
पीछे ये सब
साफ़ करता चले.
मुझे निजी तौर
पर ये चीज़
बहुत चुभती है
इसीलिए मैं इस
विषय में अपने
परिचितों से बात
करता रहता हूँ
जिससे वो भी
इस विषय पर
सोचें और उसी
अनुरूप आचरण करें.
मुझे ये महसूस
हुआ कि समस्या
निजत्व की है.
हम अपने घर
को तो इस
प्रकार गन्दा नहीं करते,
क्योंकि वह हमारी
निजी संपत्ति है
परन्तु सार्वजनिक सम्पत्तियों पर
यह क्रूरता क्यों?
शायद इसीलिए क्योंकि
सिर्फ इनका भोग
करना ही हमारा काम
है, इनका रख
रखाव और संरक्षण
हमारी ज़िम्मेदारी नहीं।
हम से हर
कोई यही सोचता
है कि मुझसे
इन सबसे क्या?
सड़कों की सफाई
तो बस सरकार
करेगी, बिंदास गन्दगी फैलाना
मेरा हक़ है,
मैं बाकायदा इसका
टैक्स देता हूँ.
आज नवरात्री के आठवें
दिन ऐसे दो
लोगों से मेरा
पाला पड़ा. एक
सज्जन तो मंदिर द्वार
पर ही टकरा
गये. उन्होंने मंदिर
में दाखिल होते
समय सुपारी (मीठी
सुपारी) का एक
पैकेट फाड़ा और
एक टुकड़ा वहीँ
फेंक कर सुपारी
मुह में उड़ेलते
हुए अंदर जाने
लगे. मैंने उनको
रोका और कहा
कि " भाई! प्लीज़
ये रैपर यहाँ
पर मत फैको".
उसने मेरी शकल
देखी, बड़ा अजीब
सा चेहरा बनाया
और दो कदम
बाहर आकर दूसरा
रैपर फेंक दिया। इतना
करके वह मंदिर
के अंदर चलता
बना. वास्तव में
मैं बड़ा आहत
हुआ, मेरा मन
किया वहीँ उसे
दो तमाचे जड़
दूँ , परन्तु ये
सब करके मैं
पागल जैसा प्रतीत
होता जो सफाई
के नाम पर
हिंसक हो गया.
मैंने वो प्लास्टिक
का रैपर उठाकर
जेब में रख
लिया और मैं
भी आगे बढ़
गया। थोड़ी दूर
निकला तो एक
दुकानदार ने अपनी
दुकान के अंदर
से ही सिगरेट
बाहर फेंकी। मैं
फिर रुक गया,
मुझे बड़ा गुस्सा
आया। फिर मेरा
मन किया कि
उसे जाकर बोलूं
कि "भाई सिगरेट
पीनी है तो
अपने पास दुकान
में ऐश ट्रे
रखो और सिगरेट
बुझा कर कूड़ेदान
में डालो"।
लेकिन मैं ऐसे
ही आगे बढ़
गया , शायद और
अपमान सहने की
हिम्मत नहीं हुई।
मैं आप सभी
से ये बात
कहना चाहता हूँ
कि ये छोटी
छोटी गलतियां, ये
आदतें कल
विकराल रूप लेकर हमारे सामने आ खड़ी
होती हैं और
हम केदारनाथ या
कश्मीर आपदा जैसे
मंज़र देखने को
मजबूर हो जाते
हैं. हम सब
अक्सर नारा देते
हैं कि "धरती
को बचाओ, पर्यावरण
को बचाओ ", वास्तव में हमें
खुद को बचाना
है, धरती तो
अपनी सफ़ाई खुद
ही कर लेगी,
और करती भी
है। यही
हुआ केदारनाथ में
और कश्मीर में.
तो बस करना
ये है कि
अपनी आदतें सुधारें
और अन्य लोगों
को भी ये
बताएं। फिर हमारे
प्रधानमन्त्री को कम
से कम सफाई
जैसे मुद्दे के
लिए समय और
धन लगाने की
ज़रूरत नही पड़ेगी,
और वह अन्य
बड़े और विशेष
मुद्दों पर काम
कर सकेंगे।
वन्दे मातरम